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करते हैं वे पवित्र बनते हैं और अन्त में परमपद को एवं शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं ।
विश्व में सोना- रूपा आदि सप्त धातुयें सुप्रसिद्ध हैं । सभी कच्ची धातुत्रों को पक्का बनाने के लिये या पक्की धातुत्रों से विविध प्रकार के सुन्दर आकार अलंकारआभूषण रूप घड़ने के लिये उनको तपाना पड़ता है । उसी भाँति अपनी श्रात्मा चेतन भी है । उसको भी तपाकर शुद्ध करने के लिये और उत्तम स्थिति में लाने के लिये तपश्चरण की प्रति आवश्यकता है । अपनी आत्मा चेतन को तपाने वाली जो क्रिया है वही तप तपश्चरण है ।
तप की व्याख्या
कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद्हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने अपने 'श्रीसिद्ध हैमव्याकरण' ग्रन्थ में कहा है कि- 'तपं ( तप्) -धुप (धुप्) संतापे' अर्थात् 'तप्' धातु और 'धुप्' धातु संताप अर्थ में आते हैं । उसमें 'तप्' धातु को 'अस्' प्रत्यय लगने से 'तपस्' शब्द बनता है । वही भाषा में तप कहलाता है ।
अथवा
'ताप्यन्ते रसादिधातवः कर्मारिण वा श्रनेनेति तपः ।'
जिस क्रिया द्वारा देह का रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि मज्जा एवं शुक्र ये सात प्रकार की धातुयें या कर्म श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - २५४