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________________ श्रीतपपद का स्वरूप जगत में तप का स्थान सर्वोपरि है। तप सर्वग्राह्य है। कोई भी धर्म ऐसा नहीं है कि जिसमें किसी-न-किसी रूप में तप को नहीं अपनाया गया हो। भले वह जैनधर्म हो, हिन्दूधर्म हो, इस्लामधर्म हो, या विश्व का कोई भी अन्य धर्म हो। अहिंसा और संयम में जिस तरह जैनधर्म का स्थान सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्तम है उस तरह तपश्चरण-तप में भी उसका शीर्षस्थ स्थान है। दान, शील, तप और भाव ये धर्म के चार महान् स्तम्भ हैं। उनमें तप भी एक आकर्षक स्तम्भ है। ... प्रभु की पूजा, सामायिक, पौषध तथा प्रतिक्रमण आदि प्रत्येक मुख्य धर्मकरगी कर्मनिर्जरा के कारण रूप अवश्य है तो भी विशेषपूर्वक निकाचित कर्मों का क्षय करने के लिये तपश्चरण-तप ही एक अजोड़ साधन है। धर्मरूपी महल का सुदृढ़ पाया अहिंसा है, धर्मरूपी महल की सुशोभित दीवारें संयम और चारित्र हैं तथा धर्मरूपी महल का मनोहर शिखर तप है। अहिंसा से धर्म का आचरण प्रारम्भ होता है, संयम से धर्माचरण की वृद्धि होती है तथा तप से धर्माचरण की पूर्णता होती है। इस त्रिवेणीरूप संगम में जो स्नान श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२५३
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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