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________________ 'भवको डिसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ । ' करोड़ों भवों का संचित किया हुआ कर्म तप द्वारा क्षय पामता है | मलं स्वगतं वह्नि - हंसः क्षीरगतं जलम् । यथा पृथक करोत्येव, जन्तोः कर्ममलं तपः ॥ १ ॥ (उत्तराध्ययन सूत्रटीका ( भावविजयकृत) प्र. २, पृ० ५८, श्लो० ४५) अर्थ - जिस तरह सुवर्ण में रहे हुए मल को अग्नि अलग करती है, दूध में रहे हुए जल को हंस अलग करता है, उसी तरह प्राणियों में रहे हुए कर्मरूपी मल को तप ( आत्मा से अलग करता है । अर्थात् - प्रात्मा तप रूपी अग्नि द्वारा सुवर्ण की तरह निर्मल होता है ।। १ ।। 'आचारदिनकर' ग्रन्थ में प्राचार्य श्रीवर्द्ध मानसूरिजी म० ने भी तप के सम्बन्ध में कहा है कि यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत् सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ।। २ ।। " अर्थ - जो ( वस्तु) दूर है अर्थात् कल्पना से प्रतिरिक्त है, जो ( वस्तु) कष्ट साध्य है तथा जो ( वस्तु) दूर स्थित है, ऐसी सभी वस्तुएँ तप से साध्य हैं । कारण यह है कि तप दुरतिक्रम है । अर्थात् जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सके ऐसा है ।। २ ॥ श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - २५६
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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