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पुनः कहते हैं कि-- 'बार मास पर्याये जेहने,
अनुत्तर सुख अतिक्रमीए । शुक्ल शुक्ल अभिजात्य ते उपरे,
ते चारित्रने नमीए रे॥
भविका ! सिद्धचक्रपद वंदो० (४) चय ते पाठ करमनो संचय,
रिक्त करे जे तेह । चारित्र नाम निरुत्ते भाख्यु,
ते वंदं गुरण गेह रे॥
भविका ! सिद्धचक्रपद बंदो० (५) अर्थ-जिसके बारह मास के पालन से अनुत्तर विमान के देवों के सुखों का उल्लंघन हो जाता है और उज्ज्वलउज्ज्वल ऐसी शुभ लेश्या में वृद्धि होती रहती है, ऐसे चारित्र को नमस्कार करते हैं । (४)
'चय' यानी अष्ट कर्म के संचय को 'रिक्त' यानी खाली करना, वह 'चारित्र' शब्द ऐसी निरुक्ति से सिद्ध हुआ है। गुणों के गुणरूप चारित्र को मैं वन्दननमस्कार करता हूँ। (५)
(१) ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२५०