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चारित्र की मुझे शरण हो ।। ६१ ।। समिइयो गुत्तियो, खंतिपमुहा उ मित्तिपाइयो । साहंति जस्स सिद्धि, तं चारित्तं पवनोहं ।। ६२ ॥ ___पांच समिति, तीन गुप्ति, क्षमादिक गुणों और मैत्री प्रमुख भावना चतुष्टय द्वारा जिसको सिद्धि (पूर्णता) प्राप्त होती है उस चारित्र की मुझे शरण हो ।। ६२ ॥
इस तरह 'श्री चारित्रपद का अनुपम वर्णन' प्रतिपादित किया गया है।
सम्यकचारित्रपद को नमस्कार . श्रीचारित्रपद विश्व में सर्वदा नमस्करणीय-वन्दनीय है। इस सम्बन्ध में न्यायविशारद न्यायाचार्य महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज ने स्वरचित श्रीनवपदजी की पूजा के अन्तर्गत श्री चारित्रपद की पूजा में कहा है कि'देशविरति ने सर्वविरति जे, गृही यतिने अभिराम । ते चारित्र जगत जयवंतु, कोजे तास प्रणाम रे ॥
भविका ! सिद्धचक्रपद वंदो० (१)' अर्थ-देशविरति और सर्वविरति रूप चारित्र क्रमशः गृहस्थ और यति (मुनि) को योग्य है, मनोहर है वह चारित्र विश्व में जयवन्त वर्तित है। उसको प्रणामनमस्कार करें। (१)
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२४६