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छखंडारणमखंड, रज्जसिरि चय चक्कवट्टीहि । जं सम्मं पडिवन्न, तं चारितं जए जयइ ॥ ८८ ॥
छह खण्डों की प्रखण्ड राज्यऋद्धि को तज कर चक्र - वत्तियों ने जिसे सद्भाव से स्वीकार किया है वह चारित्र विश्व में जयवन्त वर्तित है ॥ ८८ ॥
जं पडिवन्ना दमगा, इरणोवि जीवा हवंति तिय लोए । सयल जरणपूयरिज्जे, तं चारितं जए जयइ ॥ ८६ ॥
जिसकी प्राप्ति से रंक जीव भी त्रिभुवन में सर्वजनों के पूजनीय होते हैं वह चारित्र विश्व में जयवन्त वर्तित है ।। ८६ ।।
जं पालतारण मुणी, - सरारण पाए नमति सारदा । देविददाविंदा, तं चारितं जए
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जयइ ॥ ६० ॥
जिस ( चारित्र) का पालने करने वाले मुनीश्वरों के चरणों में देव-दानवों के नायक भी नमस्कार करते हैं वह चारित्र विश्व में जयवन्त वर्तित है ।। ६० ।।
जं चारणंत गुरणं पिहु, वन्निज्जइ सतरभेदसभेनं । समयमि मुरिणवरेहि, तं चारितं पवन्नोहं ॥ ६१ ॥
अनन्त गुणवंत होते हुए भी शास्त्र में मुनिवरों ने जिसका सत्तरह प्रकार से या दस प्रकार से वर्णन किया है उस
श्रीसिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- २४८