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________________ जो क्रमशः देशविरतिरूप तथा सर्वविरतिरूप होकर मुनि को प्राप्त होता है, वह चारित्र विश्व में जयवन्त वर्तित है ।। ८४ ।। नाणंपि दंसणंपि य, संपुन्नफलं फलंति जीवाणं । जेरण चिय परियरिया, तं चारित्तं जए जयइ ।। ८५ ॥ ज्ञान और दर्शन भी जिसके साथ रहने पर ही जीवों को सम्पूर्ण फल देते हैं, वह चारित्र विश्व में जयवन्त वर्तित है ।। ८५ ।। जं च जईरण जहुत्तर, फलं सुसामाइयाइ पंचा विहं । सुपसिद्ध जिरणसमए, तं चारित्तं जए जयइ ॥ ८६ ॥ ... जो सुसामायिकादिक पाँच प्रकार से मुनिजनों को अधिकाधिक फलदायी रूप में जिनागम में सुप्रसिद्ध है, वह चारित्र विश्व में जयवन्त वर्तित है ।। ८६ ।। जं पडिवन्नं परिपा-लियं च सम्मं परूवियं दिन्न । अन्न सिं च जिणेहि, वि तं चारित्तं जए जयइ ।। ८७ ॥ जिनेश्वर भगवन्तों ने जिसे स्वीकार किया हो, पाराधा हो, जिसकी सम्यक् प्ररूपणा की हो और अन्य जनों को दिया हो, वह चारित्र विश्व में जयवन्त वर्तित है ।। ८७ ।। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२४७
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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