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________________ चारित्र गुण का प्रकटीकरण शीघ्रतम हो जाय । हमारा अन्तःकरण निरन्तर पाँच महाव्रतों और उनकी पचास भावनाओं से भावित रहे - प्रफुल्लित रहे । हे चारित्रपद ! लोक में आपके बिना कभी भी हमारी आत्मा मुक्ति नहीं पा सकेगी। इसलिये हम आपसे प्रार्थना - विज्ञप्ति करते हैं कि इस मनुष्य भव में आप हमारे हृदर मन्दिर में पधारिये, हम आपका सुन्दर स्वागत करेंगे, ग्रात्मरमणता में रमेंगे, अभ्यन्तर राग-द्वेषादि शत्रुनों को जीतेंगे, केवलज्ञान प्राप्त करेंगे, और अपने भवभ्रमण के द्वार को बन्द कर के हम मुक्तिपुरी में सादि अनन्त स्थिति में एवं शाश्वत सुख में मग्न बनेंगे । हमें आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हमारे भव निस्तार का तथा मोक्षगमन का यह शुभ कार्य पूर्ण करने में आप हमारे सम्पूर्ण सहायक बनेंगे । श्री चारित्रपद का अनुपम वन विश्व में 'चारित्रपद जयवन्त है ।' श्री नवपद प्रकरण में नवपद का वर्णन करते हुए प्रष्टम श्रीचारित्रपद के सम्बन्ध में कहा है कि- जं देसविरइरूवं सव्वविरइरूवयं च प्रणुक्कमसो । होइ गिहीरण जईण, तं चारितं जए जयइ ॥ ८४ ॥ श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- २४६ ,
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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