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इस तरह सम्यक्त्त्व युक्त चौथे एवं पाँचवें गुणस्थानक वाली आत्माएँ विचार करती हैं।
इस चारित्र में बेंतालीश दोष रहित शुद्ध आहार लेने का है, नवकल्पी उग्र विहार करने का है, एक हजार और तेवीश (१०२३) दोष रहित निहार ( शुद्ध स्थंडिल ) करने का है, सुबह और शाम दोनों वक्त आवश्यक - प्रतिक्रमण करने का है, तथा बावीश परीषह को सहन करने का है ।
इस तरह चारित्र के अनेक प्रकार कहे हैं । वे सभी साधु- मुनिपने के व्यवहार रूप हैं । निश्चय से तो अपने आत्मिक गुणों में स्थिर रहना ही उदार चारित्र है ।
ऐसी व्यवहार और निश्चय चारित्रवन्त उत्तम आत्मायें मोह इत्यादिक पराभवों से रहित होती हैं । जो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों से युक्त चारित्री - संयमी होता है वही श्रेष्ठ गिना जाता है ।
इस तरह जो जीव चारित्र - पालन के लिये सतत उद्यमवन्त - प्रयत्नशील होते हैं वे जीव अन्त में शिववधू की उत्तम वरमाला को प्राप्त करते हैं ।
हम भी ऐसा सम्यक्चारित्र चाहते हैं कि जो वीतरागता से परिपूर्ण हो । परमपद प्राप्त कराने वाला हो । शाश्वत सुख दिलाने वाला हो । हमारी आत्मा में
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- २४५