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प्रात्मा अपने अन्तःकरण-हृदय में दृढ़पने निश्चय करे कि-- मैं अवश्यमेव सम्पूर्ण शुद्ध संयम-चारित्र का पालन करने में समर्थ हूँ। धीरे-धीरे भी मैं अविरतपने चारित्र धर्म में आगे बढता रहूँ। मेरे जीवन में सच्चारित्र की सुवाससौरभ सदा महकती रहे। विश्व में सच्चारित्र ही ऊर्ध्वगामिता का मुख्य कारण है और आत्मा को मोक्ष दिलाने वाला भी यही है ऐसी पवित्र भावना अपने मन में दृढ़पने प्रतिदिन रमती रहे ।
श्रीचारित्रपद का आराधन श्रीसिद्धचक्र के नवपद पैकी आठवें चारित्रपद के सित्तर प्रकार-भेद होने से उनका आराधन भी चारित्रधर्म में अपेक्षित है। इसलिये चारित्रपद का सित्तर प्रकारे आराधन होता है। पाँच महाव्रत, दस यतिधर्म, सत्तरह प्रकारे संयम, दस वैयावच्च, नव ब्रह्मचर्य की गुप्ति, ज्ञानदर्शनचारित्र ये तीन, बारह प्रकारे तप, तथा क्रोध-मानमाया-लोभ ये चार कषाय, सब मिलकर सित्तर होते हैं । इन सभी की आराधना चारित्रपद से होती है। इस पद की सम्यक् अाराधना से शिवकुमार के भव में पाराधन करने वाले श्रीजम्बूकुमार चरम केवली हुए तथा वरुणदेव ने तीर्थंकर पदवी पायी और उनको विजय-लक्ष्मी प्रगटी ।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२४३