________________
पहुँचाता है ।
व्यवहार कारण है और निश्चय कार्य है । कारण बिना कार्य नहीं हो सकता है। इसलिये व्यवहार और निश्चय दोनों नयों की गौणता - मुख्यता समझकर यदि चारित्र का पालन करे तो आत्मा सकल कर्मों का क्षय कर अवश्यमेव मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।
चारित्रपद का अधिकारी
लोक में चारित्र पद का अधिकारी मनुष्य है । जिसने संसार की प्रसारता - निर्गुणता, विषयों की क्षणभंगुरता, मनुष्य जन्म की दुर्लभता तथा पाँचों इन्द्रियों एवं मन की सलामतता जानकर गुरु के प्रति समर्पण भाव किया है ऐसा अल्पकषायी, मन्द हास्यवन्त तथा विनीत मनुष्य इस चारित्रपद का अधिकारी है । चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से चारित्रधमं की प्राप्ति होती है | चारित्रधर्म को स्वयं श्रीतीर्थंकर भगवन्तों ने भी अपनाया है अर्थात् उसका सम्यक् पालन किया है, इतना ही नहीं किन्तु दिव्य समवसरण में बैठकर बारह सभाओं के समक्ष अपनी धर्मदेशना में इस चारित्रधर्म का निरूपण भी किया है ।
चारित्रपद का आराधक
सम्यक् चारित्रपद की श्राराधना करता हुआ आराधक
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूप दर्शन- २४२