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वैयावच्च करने वाले हों और एक वाचनाचार्य हो । इस तरह अठारह मास का यह 'परिहार कल्प' पूर्ण होता है ।
(४) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र-सूक्ष्म किट्टिरूप-चूर्णरूप जो अति जघन्य सम्पराय यानी लोभकषाय, उसके क्षय रूप जो चारित्र वह, 'सूक्ष्मसम्पराय चारित्र' कहा जाता है । क्रोध, मान और माया इन तीनों कषायों का क्षय होने के पश्चात् अर्थात् मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से चतुर्थ कषाय संज्वलन लोभ के बिना सत्ताईस प्रकृतियों के क्षय या उपशम के बाद और संज्वलन लोभ में भी बादर संज्वलन लोभ का उदय विनाश होने के पश्चात् जब केवल एक सूक्ष्म लोभ का उदय वर्तता हो, तब दसवें सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान में वर्तते जीव का चारित्र सूक्ष्मसम्पराय चारित्र कहा जाता है । उसके भी दो भेद हैं । वहाँ उपशम श्रेणी से पड़ते हुए जीव को दसवे गुणस्थाने पतित दशा के अध्यवसाय होने से 'संक्लिश्यमान सूक्ष्मसम्पराय चारित्र' है और उपशम श्रेणी में चढ़ते हुए जीव को विशुद्ध चढ़ती दशा का अध्यवसाय होने से 'विशुद्धयमान सूक्ष्मसम्पराय चारित्र' है।
(५) यथाख्यात चारित्र-ख्यात यानी प्रसिद्ध, यथाख्यात यानी यथार्थ-वास्तविक प्रसिद्ध चारित्र । जहाँ पर कषाय का बिल्कुल उदय न हो उस समय का जो चारित्र,
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२२८