SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को पढ़ाने के पश्चात् उत्कृष्ट से छह मास के बाद जो बड़ी दीक्षा दी जाती है, वह 'निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' है । अथवा एक तीर्थंकर के मुनि को जब दूसरे तीर्थंकर के शासन में प्रवेश करना हो तब उस मुनि को पुनः चारित्र उच्चराना, वह भी 'निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' है । जैसे श्रीपार्श्वनाथ के मुनि श्री केशीकुमारश्रमण । वह तीर्थसंक्रान्ति रूप है । यह छेदोपस्थापनीय चारित्र भरतादि दस क्षेत्रों में ग्राद्य और अन्तिम श्रीतीर्थंकर भगवन्त के शासन में होता है, किन्तु बावीश श्रीतीर्थं - कर भगवन्तों के शासन में और महाविदेह क्षेत्र में सर्वथा यह चारित्र होता नहीं । (३) परिहारविशुद्धि चारित्र - परिहार यानी तपविशेष | अर्थात् गच्छ के त्याग वाला तपविशेष और उस तप से होती हुई जो चारित्र की विशुद्धि, वह 'परिहार विशुद्धि चारित्र' कहा जाता है । जैसे स्थविरकल्पी मुनियों के गच्छ में से गुरु की आज्ञा पाकर नौ साधु गच्छ बाहर निकल कर केवली, गणधर पूर्वे परिहार कल्प स्वीकारे हुए साधु के पास जाकर परिहार कल्प करे । उसमें चार साधु परिहारक बने यानी छह मास तप करे, अन्य चार साधु उनकी वैयावच्च करे तथा एक साधु वांचनाचार्य बने । छह मास के बाद फेरफार, बाद में वांचनाचार्य छह मास तप करे । जघन्य से एक तथा उत्कृष्ट से सात साधु श्रीसिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- २२७
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy