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________________ वह 'यथाख्यात चारित्र' कहा जाता है। शास्त्रों में यह चारित्र ग्यारह से चौदहवें गुणस्थानक तक कहा गया है । इसी चारित्र का आचरण करके भव्यात्मा मोक्ष में चले जाते हैं। इसके भी चार भेद हैं-(क) उपशान्त यथाख्यात, (ख) क्षायिक यथाख्यात, (ग) छाद्मस्थिक यथाख्यात और (घ) कैवलिक यथाख्यात । (क) उपशान्त यथाख्यात-ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म सत्ता में होने पर भी तद्दन शान्त होने से उसका उदय नहीं है। इसलिये उस समय का चारित्र 'उपशान्त यथाख्यात चारित्र' कहा जाता है । (ख) क्षायिक यथाख्यात-बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का मूल से ही सर्वथा क्षय हो जाने से जो क्षायिक भाव का चारित्र होता है, वह 'क्षायिक यथाख्यात चारित्र' कहा जाता है। (ग) छाद्मस्थिक यथाख्यात-छद्मस्थ जीव का चारित्र जो ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थान में है, वह 'छानस्थिक यथाख्यात चारित्र' कहा गया है । (घ) कैवलिक यथाख्यात-केवलज्ञानी जीव को तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में जो क्षायिक भाव का चारित्र होता है, उसे 'कैवलिक यथाख्यात चारित्र' कहा है। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२२६
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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