________________
चारित्र के भेद श्रीजिनेश्वरदेव के शासन में श्रीसिद्धचक्र के नवपद पैकी आठवें पद तरीके श्रीचारित्र पद सुप्रसिद्ध है। उसके मुख्यपने दो भेद हैं--(१) देशविरति और (२) सर्वविरति ।
(१) देशविरति चारित्र-सम्यक्त्व युक्त श्रावक के पालने योग्य चारित्र को देशविरति चारित्र कहा जाता है । यह चारित्र पांचवें गुणस्थानक में वर्तते श्रावक को होता है। वहाँ पर श्रावक को देश से अर्थात् (अमुक) अंशे विरति का पालन होता है-जघन्य से एक अणुव्रत का और उत्कृष्ट से बारह व्रतों का। बारह व्रतों में स्थूलप्राणातिपात विरमणादि पाँच अणुव्रतों का, दिशापरिमारण विरमणादि त्रण गुणवतों का तथा सामायिकव्रतादिक चार शिक्षाव्रतों का समावेश होता है। पंच महाव्रतधारी साधुमुनि महाराजाओं के पाँच महाव्रतों की अपेक्षा से इन बारह व्रतों का पालन व्रतधारी श्रावकों को स्थूल रूप से होता है। इसलिये वे अणुव्रत कहे जाते हैं। देशविरति चारित्र के भी अनेक भंग (भेद) शास्त्र में प्रतिपादित किये गये हैं।
(२) सर्वविरति चारित्र-प्राणातिपातादि अर्थात् हिंसादि पाप मात्र का जीवन पर्यंत प्रतिज्ञापूर्वक त्याग कर
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२२४