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है; पापी आत्मा भी निर्मल निष्पाप हो जाता है, इतना ही नहीं किन्तु कर्मों का पार पाकर सिद्ध होता है ।
चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम रूप प्रभाव हो जाने से प्रात्मा में देशविरति और सर्वविरति प्राप्त होती है अर्थात्---अनंतानुबन्धी चार कषाय और अप्रत्याख्यानी चार कषाय ये दोनों मिलकर पाठ कषाय दूर होने से मन में 'देशविरति भाव' स्थिर होता है । अनंतानुबन्धो चार कषाय, अप्रत्याख्यानी चार कषाय और प्रत्याख्यानी चार कषाय ये तीनों मिलकर बारह कषाय दूर होने से मन में गुण के समूहरूप 'सर्वविरति भाव' प्रगट होता है। देशविरति से सर्वविरति में अनंतगुणी विशुद्धि का समास होता है। एक वर्ष जितनी शुद्ध चारित्र की पर्याय से संयमी को अनुत्तर विमान के देवों से भी विशेष आत्मिक सुख प्राप्त होता है। संयम-चारित्र से ही शुक्ल परिणाम की वृद्धि हो जाने से जीव मोक्षपद को भी प्राप्त कर सकता है ।
अरिहन्त परमात्मा भी सर्वसंवररूप चारित्र पाकर मुक्ति साम्राज्य को प्राप्त करते हैं। निश्चय से मोक्षपद का अनंतर कारण चारित्र ही है। उसको पालने वाले श्रमण-संयमी-मुनिराज ही हैं। ऐसी अनुपम महिमा चारित्र पद की है। सर्वविरति चारित्र का महत्त्व अजोड़ है। पंचमहाव्रतधारी-चारित्रवंत ऐसे मुनि भगवंत अहनिश त्रिभुवन वंदनीय-पूजनीय हैं।
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श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२२१