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________________ (१) चारित्रपद - सर्व नय का 'उद्धार रूप' है । (२) चारित्रपद - प्रतिकूल आस्रवों के 'त्याग रूप' है । (३) चारित्रपद - इन्द्रियों के दमनपूर्वक तत्त्व में 'स्थिरता रूप' है । (४) चारित्रपद - पवित्र उत्कृष्ट क्षमा, निर्लोभता इत्यादि 'दश पद वाला' है । (५) चारित्रपद - पाँच प्रकार के संवर के 'संचय वाला' है । (६) चारित्रपद - सामायिक से यथाख्यात की पूर्णता पर्यन्त 'पंच भेद वाला' है । ( ७ ) चारित्रपद - कषाय और क्लेश रहित है । (८) चारित्रपद - निर्मल और उज्ज्वल है । ( ६ ) चारित्रपद - काम रूपी मल को चूर्ण करने रूप स्वभाव वाला है । तत्त्व में रमरणता यही जिसका मूल है ऐसे चारित्रपद के प्रभाव से परवस्तु में रमरणता का स्वभाव दूर होता है और विश्व की सर्व सिद्धियाँ अनुकूल हो जाती हैं । रंक एवं दरिद्रनारायण मनुष्य भी क्षण में सम्राट् - राजा बन जाता श्री सिद्धचक्र नवपदस्वरूपदर्शन-२२०
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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