SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनाने वाला है। विश्व पर अजोड़ उपकार करने वाला श्रु तज्ञान है। वह द्वादशाङ्गी रूप अर्थात् श्रीपाचाराङ्ग अादि अंग रूप है। महाज्ञानी पुरुषों ने इस श्रु त को उपाङ्ग आदि रूपे अति विकसित किया है। भव्यजीव आज भी इस श्रु तज्ञान का विधि-बहुमानपूर्वक पठन-पाठन इत्यादि उपासना में सदुपयोग कर रहे हैं। इस तरह श्रीसम्यग्ज्ञान की उपासना करने वाले पुण्यशाली महानुभाव भवसिन्धु-संसारसागर से शीघ्र निस्तार पा सकते हैं । ज्ञान की उपासना में जो अनादर बुद्धि होती है वह बहुल संसारिता का लक्षण है। जो ज्ञान किसी भी आत्मा को लोक में पूछने योग्य, पूजनीक और प्रशंसनीय बनाकर भवसिन्धु से शीघ्र निस्तार कराता है, वह ज्ञान किसी भी विवेकी आत्मा के लिये अवश्यमेव आराधनीय है । अहर्निश कोटिशः वन्दन हो उस प्रकाशपूर्ण ज्ञानसूर्य को ! श्रीज्ञानपद की आराधना का उदाहरण (१) श्रीसिद्धचक्र-नवपदपैकी इस सप्तम ज्ञानपद की आराधना का ज्वलंत उदाहरण सती शीलवती का है जो ज्ञानपद की आराधना से प्रकृष्ट पुण्यभाक् हुई । (२) 'मा रुस' और 'मा तुस' इन दो पदों के अध्ययन से मासतुस मुनि केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को गये । उनका भी उदाहरण ज्वलंत है । श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन २११
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy