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भले ग्यारह अंग और बारह उपांग पढ़ लें तो भी चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम बिना ज्ञान कभी सम्यग् नहीं हो सकता।
हे ज्ञानपद ! मैं प्रार्थना करता हूँ कि अब मेरी आत्मा में सम्यग्ज्ञान का दीप जला दो। कभी न बुझने वाला हो, ऐसा केवलज्ञान का 'रत्नदीप' ; जो सदा ही साथ में मेरे प्रात्ममन्दिर में रहे।
श्रीज्ञानपद का अाराधक
श्रीज्ञानपद की सम्यग् विशिष्ट आराधना करने वाले आराधक आत्मा की स्वयं यह दृढ़ मान्यता होनी चाहिये कि मैं अज्ञानी नहीं हूँ, किन्तु पूर्ण ज्ञानी हूँ। अनन्त ज्ञान का खजाना (भण्डार) मेरी आत्मा में है। ज्ञानावरणीयादि कर्मों का सर्वथा विनाश करने की अनन्त शक्ति मेरी प्रात्मा में ही है । लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान रत्नदीपक की अखण्ड ज्योति सर्वत्र सर्वदा ही प्रकाशित होती हुई मेरी आत्मा में भी अहर्निश प्रकाश करती रहे। यही सर्वज्ञ विभु परमात्मा से प्रार्थना है ।
श्रीसम्यग्ज्ञान का पाराधक आत्मा अज्ञानियों के अज्ञानमायाजाल में कभी भी फंसने वाला नहीं। अज्ञान के प्रति उसका आकर्षण भी नहीं। उसकी विवेक दृष्टि सर्वदा सतत
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२०६