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इसलिये 'सम्यग्ज्ञान मेरे प्रमाण है' इस वाक्य को अहर्निश स्मरण करना, कभी भी भूलना नहीं ।
श्रीज्ञानपद की भावना
विश्व में दो प्रकार का ज्ञान प्रवर्त्तता है । सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान । प्रात्मिक विकास के लिये सम्यग्ज्ञान ही वास्तविक है ।
हे ज्ञानपद ! अर्थात् हे सम्यग्ज्ञान ! मेरे श्रात्ममन्दिर में आपके बिना सर्वत्र अज्ञान रूपी अन्धेरा छा रहा है । अनादि काल से मेरी आत्मा जब निगोदस्थान में थी उस समय मुझे किसी भी प्रकार का भान नहीं था । फिर मैं निगोदस्थान में से अर्थात् प्रव्यवहार राशि में से निकल कर व्यवहार राशि में प्राया और क्रमशः एकेन्द्रियरूपे, बेइन्द्रियरूपे, तेइन्द्रियरूपे, चउइन्द्रियरूपे और पंचेन्द्रियरूपे भी उत्पन्न हुआ । उनमें भी देवगति में तिर्यंचगति में, नरकगति में और मनुष्यगति में परिभ्रमण करता ही रहा । इस चतुर्गतिमय भव में भटकते हुए मैं आपको नहीं पहिचान सका । प्रोघ दृष्टि से मैं सम्यग् को मिथ्या और मिथ्या को सम्यग् समझता रहा ।
'संसार हेय ( त्याज्य ) है और मोक्ष उपादेय है' ऐसी भावना ही सम्यग्ज्ञान है । चाहे कितने भी ग्रन्थ पढ़ लें,
श्रीसिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - २०८