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तत्तच्चिय जं भव्वा, पढंति पाढंति दिति निसुरणंति । पूयंति लिहावंति य, तं सन्नाणं मह पमारणं ॥ ८१ ॥
जिन्हें इसलिये ही भव्यजन पढ़ते, पढ़ाते हैं, निश्रवण करते हैं, पूजते हैं और लिखाते हैं वह सम्यग्ज्ञान मेरे प्रमाण है ।। ८१ ।। जस्स बलेणं प्रज्जवि, नज्जइ तियलोयगोयरवियारो। करगहियामलयं पिव, तं सन्नारणं मह पमाणं ॥ ८२ ॥
जिसके बल से आज भी तीन लोक के भाव हाथ में रखे हुए आँवले की भाँति (स्पष्ट) ज्ञात होते हैं वह सम्यग्ज्ञान मेरे प्रमाण है ।। ८२ ।। जस्स पसाएण जणा, हवंति लोयंमि पुच्छरिणज्जा य । पुज्जाय वन्नरिणज्जा, तं सन्नारणं मह पमाणं ॥ ८३ ॥
जिसके पसाय (प्रसाद) से भव्यजन लोक में पूछने योग्य, मानने योग्य और प्रशंसा के योग्य होते हैं वह सम्यग्ज्ञान मेरे प्रमाण है ।। ८३ ।।
इस तरह इन गाथाओं से सिद्ध होता है कि 'सम्यगज्ञान मेरे प्रमाण है'। विश्व में ज्ञान का प्रचार सबसे ज्यादा है। लेकिन आत्मिक विकास और आत्मा की मुक्ति सम्यग्ज्ञान से ही होती है; मिथ्याज्ञान से कभी नहीं ।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२०७