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सकलकिरियारण मूलं, सद्धा लोयंमि तीइ सद्धाए। जं किर हवइ मूलं, तं सन्नाणं मह पमाणं ।। ७७ ॥
लोक में सकल क्रिया का मूल श्रद्धा है और जो श्रद्धा का भी मूल (कारण) है वह सम्यग्ज्ञान मेरे प्रमाण है ।। ७७ ।।
जं मइसुयमोहिमयं, मणपज्जवरूवं केवलमयं च । पंचविहं सुपसिद्ध, तं सन्नारणं मह पमारणं ॥ ७८ ।।
मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान इन पांच प्रकारों से जो सुप्रसिद्ध है, वह सम्यग्ज्ञान मेरे प्रमाण है ।। ७८ ॥ केवलमरणोहिणंपि हु, वयणं लोयाण कुरणइ उवयारं । जं सुयमइरूवेणं, तं सन्नाणं मह पमारणं ॥ ७९ ॥
केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी तथा अवधिज्ञानी के भी वचन जो मतिश्रुत रूप से लोकों का उपकार करते हैं वह सम्यग्ज्ञान मेरे प्रमाण है ।। ७६ ।।
सुयनारणं चेव दुहा,-लसंगरूवं परूवियं जथ्थ । लोयाणुवयारकरं, तं सन्नाणं मह पमारणं ॥ ८० ॥
द्वादशांगरूप श्रु तज्ञान (ही) जिसे जिनागम में जगउपकारी कहा है वह सम्यग्ज्ञान मेरे प्रमाण है ।। ८० ।।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२०६