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चाहिये। जिससे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो ऐसी कोई भी योग्य प्रवृत्ति अहर्निश होनी चाहिये । ज्ञान और ज्ञानी की आशातना न हो इस तरह से उनकी भक्ति और बहुमान होना चाहिये । इस प्रकार इस पद का विधिपूर्वक आराधन हो सकता है। ज्ञानपद का वा श्वेत-उज्ज्वल क्यों ?
(१) प्रात्मा के जो-जो गुण हैं वे सभी श्वेत-शुक्ल, उज्ज्वल-सफेद वर्ण वाले हैं। इसलिये ज्ञानपद का वर्ण श्वेत कहा है।
(२) ज्ञान प्रकाश है और अज्ञान अन्धकार है। अन्धकार काला है और प्रकाश उज्ज्वल-धोळा है। ज्ञान रूपी प्रकाश से अज्ञान रूपी अन्धकार का विनाश होता है। प्रकाश का वर्ण शुक्ल-श्वेत होने से ज्ञान गुण का भी शुक्ल-श्वेत वर्ण है।
(३) ज्ञान स्फटिक के समान निर्मल है । इसलिये ज्ञान का श्वेत-उज्ज्वल वर्ण कहा है।
(४) ज्ञान का ध्यान करने वाली प्रात्मा शान्ति पाती है । श्वेत वर्ण युक्त ध्यान शान्ति के लिये है । अर्थात् ज्ञान का ध्यान आत्मा को शान्त करता है। श्वेत ध्यान
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२०४