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प्रकार ज्ञान के हैं । (१) विषय प्रतिभास ज्ञान, (२) श्रात्मपरिणतिमत् ज्ञान और ( ३ ) तत्त्वसंवेदन ज्ञान ।
( १ ) विषय प्रतिभास- श्रद्धा और प्रवृत्तिहीन जो ज्ञान होता है, वह 'विषय प्रतिभास ज्ञान' कहा जाता है । जो ग्रंथि भेद पूर्वे का है । यह ज्ञान जीव और अजीवादि तत्त्वों का भास मात्र कराता है, किन्तु उस ज्ञान का उसके जीवन पर कोई असर नहीं होता ।
(२) श्रात्मपरिणतिमत् - श्रद्धायुक्त आत्म परिणति वाला ज्ञान 'आत्मपरिरगतिमत् ज्ञान' कहा जाता है । हेयउपादेय की जवाबदारी वाला ज्ञान भी 'आत्मपरिणतिमत् ज्ञान' कहा जाता है । आत्मा में परिणाम पाया हो, किन्तु आचरण में नहीं उतरा हो वह भी 'श्रात्मपरिणतिमत् ज्ञान' कहा गया है ।
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(३) तत्त्वसंवेदन - श्रद्धा और प्रवृत्तियुक्त ज्ञान 'तत्त्वसंवेदन ज्ञान' कहा जाता है । ज्ञानवन्त जैसा जाने वैसा प्राचरते हैं । जैसे सर्प के ज्ञान वाला व्यक्ति सर्प को देखते ही दूर भागता है, वैसे यह ज्ञानवंत व्यक्ति पापरूपी सर्प से दूर भागता है ।
इन तीनों ज्ञानों में से पाप-भयविहीन ज्ञान ' विषय प्रतिभास ज्ञान' मिथ्याज्ञान है । पाप के भय वाला ज्ञान
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - १६६