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________________ ये तीनों ज्ञान होते हैं। किसी जीव के मति और श्रुत के साथ मनःपर्यवज्ञान होने से मति-श्रु त-मनःपर्यव ये तीनों ज्ञान भी होते हैं। किसी जीव के मति-श्रुत-अवधि एवं मनःपर्यव ये चारों ज्ञान भी होते हैं। ऐसे ज्ञानवन्त जीवों को जब केवलज्ञान प्राप्त होता है तब अन्य ज्ञानों का अन्तर्भाव केवलज्ञान में हो जाने से एक केवलज्ञान ही रहता है। सम्यग्ज्ञान के विषय में सारांश यह हुआ कि संसार में सम्यग्ज्ञानवन्त कितनेक जीवों को मतिज्ञान और श्रु तज्ञान के पश्चाद् केवलज्ञान होता है। कितनेक आत्माओं को मतिज्ञान, श्रु तज्ञान एवं अवधिज्ञान के पश्चाद् या मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान के पश्चाद् केवलज्ञान होता है तथा कितनेक जीवों को मतिज्ञानादि चारों ज्ञानों के पश्चाद् केवलज्ञान होता है । परन्तु सभी श्रीतीर्थंकर भगवन्तों को क्रमशः मत्यादि चारों ज्ञान होने के बाद ही केवलज्ञान होता है । श्रीसम्यगज्ञान के प्रकार सम्यग्ज्ञान के मतिज्ञानादि मुख्य पाँच प्रकार हैं तथा उन्हीं के उत्तरभेद एकावन हैं। जिनका संक्षिप्त वर्णन पूर्व में आ गया है। प्रकारान्तरेण अन्य भी तीन श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१६८
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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