________________
नहीं होती है। इस तरह 'ज्ञान एक है' और 'ज्ञान पाँच हैं ?' ये दो मत प्रतिपादित किये गये हैं।
विशेष-ज्ञान आत्मा का ही गुण है । प्रत्येक प्रात्मा में ज्ञान गुण है । ज्ञानावरणीय कर्म से यह गुण आच्छादित किया गया है अर्थात् ढंका गया है, तो भी प्रत्येक प्रात्मा में उस कर्म का न्यूनाधिक क्षयोपशम तो होता ही है, इसलिये न्यूनाधिक ज्ञान का अंश प्रगट रहता है ।
प्रत्येक जीव में मतिज्ञान का एवं श्रु तज्ञान का अंश प्रगट है । जीवों में मिथ्यात्व के उदय से सम्यग्दर्शन नहीं है, उनका ज्ञान अज्ञान स्वरूप में होने से मतिअज्ञान एवं श्रुतप्रज्ञान कहा जाता है । जगत के प्रत्येक मिथ्यात्वी जीव में मतिअज्ञान और श्रुतप्रज्ञान ये दोनों होते ही हैं, इतना ही नहीं किन्तु कितनेक अवधिलब्धिवन्त मिथ्यात्वी जीवों के विभंगज्ञान भी होता है। इसलिये मिथ्यात्वी जीवों में तीन अज्ञान प्रतिपादित किये गये हैं। इस अज्ञान के कारण मिथ्यात्वी जीव यथार्थपने वस्तुस्वरूप को नहीं जान सकते हैं।
सम्यक्त्ववन्त-समकिती जीवों में मत्यादि पाँचों ज्ञान होते हैं। उनमें से प्रत्येक सम्यक्त्ववन्त जीव को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान अवश्य होते हैं। अवधिलब्धिवन्त जीव को अवधिज्ञान होने से मति-श्रु त-अवधि
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१९७