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________________ 1 केवलज्ञान आच्छादित हो जाता है और प्राच्छादन से जितने अंश शेष रह जाते हैं उनको ही क्रमशः मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय अवधिज्ञानावरणीय एवं मनः पर्यवज्ञानावरणीय ये चारों आच्छादित करते हैं अर्थात् ढँकते हैं । केवलज्ञान को केवलज्ञानावरणीय ही ढाँकता है । इस तरह सम्यग्ज्ञान के ये पाँचों प्रावरण हैं । आत्मा में जब प्रथम के मतिज्ञानावरणीयादि चारों आवरणों का क्षयोपशम होता है तब केवलज्ञान के अंश रूप मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होते हैं । केवलज्ञानावरणीय कर्म सर्वघाती होने से उसका कभी क्षयोपशम नहीं होता है । जब इन आवरणों का विनाश हो जाता है, तब आत्मा में ग्रात्मा का मूल गुण रूप लोकालोक-प्रकाशक ( ऐसा ) पंचमज्ञान - केवलज्ञान प्रगट होता है । 'केवलं शुद्धम्, तदावरणापगमात्' । जिस प्रकार सूर्यास्त हो जाने पर चन्द्र, तारा एवं दीपकादिक प्रकाश करते हैं, उसी प्रकार केवलज्ञानावरण में मत्यादिक आवरण के क्षयोपशम होने पर जीवाजीवादि पदार्थों का कईक प्रकाश होता है। सूर्योदय होने पर जैसे चन्द्रादिक का प्रकाश अन्तर्भूत होता है, वैसे केवलज्ञान का आवरण दूर होने पर मत्यादिक सर्व ज्ञान का प्रकाश उसमें ही प्रन्तर्भूत हो जाता है । श्रीसिद्धचक्र- नवपदस्वरूपदर्शन - १९५
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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