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प्रदेश से स्कंध जाने-देखे तथा विपुलमति वाले विशुद्धपने जाने-देखे ।
(२) क्षेत्र से-ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान वाले नीचे प्रथम नारकी रत्नप्रभा के क्षुल्लक प्रतर तक, ऊंचे ज्योतिषी के ऊपर के तल तक तथा तिर्यक् ढाईद्वीप में दो समुद्र में आये हुए १५ कर्मभूमि, ३० अकर्मभूमि तथा ५६ अन्तर्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भाव जाने-देखे । इसी तरह विपुलमति वाले वही क्षेत्र ढाई अंगुल अधिक विशुद्ध जाने-देखे ।
(३) काल से-ऋजुमति वाले जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग जाने-देखे तथा उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत-अनागत काल जाने-देखे । विपुलमति वाले उसे ही अधिक रूप में तथा विशुद्धतर जानेदेखे ।
(४) भाव से-ऋजुमति वाले अनंता भाव जाने-देखे । सर्व भावों का अनंतवाँ भाग जाने-देखे । विपुलमति वाले उसे ही अधिक रूप में और विशुद्धतर जाने-देखे ।
इस तरह मनःपर्यवज्ञानी द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से जान सकता है और देख सकता है। यह चतुर्थ मनःपर्यवज्ञान मनुष्य में ही होता है। उसमें भी
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१८८