SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है जो प्रावरण के रूप में माना गया है । सम्यग्ज्ञान के मुख्य पांच भेद पैकी तीसरा भेद यह अवधिज्ञान है । (४) मनःपर्यवज्ञान इन्द्रियों और मन की अपेक्षा बिना ढाईद्वीप में रहे हुए संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जो ज्ञान जानता है, वह 'मनःपर्यवज्ञान' कहा जाता है। उसके दो भेद हैं । (१) ऋजुपति मनःपर्यवज्ञान और (२)विपुलमति मनःपर्यवज्ञान । (१) ऋजुमति-संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जो सामान्यपने जानता है, वह 'ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान' है । जैसे-इसने अपने मन में घट का चिन्तन सामान्य रूप से किया। इतना ही ऋजुमति वाला सामान्यपने मन का अध्यवसाय ग्रहण करता है । (२) विपुलमति-संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जो विशेषपने जानता है, वह 'विपुलमति मनः पर्यवज्ञान' है। जैसे-इसने अपने मन में घट का चिन्तन विशेष रूप में किया कि यह घट 'सुवर्ण का सुकोमल' इत्यादि है । इस तरह विपुलमति वाला विशेषपने मन के अध्यवसाय को ग्रहण करता है । (१) द्रव्य से-ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान वाले अनंत श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१८७
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy