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________________ न जा सके, वह 'अननुगामी अवधिज्ञान' है । शृंखलाबद्ध दीपक की भाँति यह ज्ञान तद्-तद् क्षेत्रनिमित्तक क्षयोपशमवंत माना है । (३) वर्द्धमान - अधिक ईंधन डालने से जैसे अग्नि की ज्वाला बढ़ती है, वैसे ही आत्मा की प्रशस्त - प्रशस्ततर अध्यवसाय समये समये पूर्व करते बढ़ते रहते हैं, वह 'वर्द्धमान अवधिज्ञान' है । (४) हीयमान - पूर्वे प्रात्मा के शुभ परिणाम से ज्ञान प्रति उत्पन्न हो जाय, बाद में तथाविध सामग्री के प्रभावे पड़ते हुए परिणाम से धीरे-धीरे न्यून-हीन हो जाय, वह 'होयमान अवधिज्ञान' है । ( ५ ) प्रतिपाति - प्राप्त किया हुआ जो ज्ञान वापिस चला जाय, वह 'प्रतिपाति अवधिज्ञान' है । (६) प्रतिपाति - प्राप्त किया हुआ न जाय, वह 'प्रतिपाति अवधिज्ञान' है । जो ज्ञान चला अवधिज्ञान के एक प्रकार को 'परमावधिज्ञान' कहा जाता है । जिसको यह परमावधिज्ञान होता है, वह आत्मा पश्चात् तत्काल ही केवलज्ञान प्राप्त अन्तर्मुहूर्त के करता है । श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - १८३
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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