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जान विशिष्ट हैं। तथापि विश्व के प्राणियों का उपकार वचन द्वारा ही हो सकता है। श्रुतज्ञान द्वारा ही सदुपदेश दिया जाता है, इसलिये शास्त्र में श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष चारों ज्ञानों को मूक (मुंगे) कहा है । बोलता ज्ञान श्रु तज्ञान ही है। विश्व में व्यवहार मति-श्रु त पूर्वक प्रवत्तता है । उसमें भी श्रु तज्ञान प्रति मार्गदर्शक है, इतना ही नहीं स्व-पर प्रकाशक भी है।
सर्वज्ञ विभु श्रीजिनेश्वर-तीर्थंकर भगवन्त भाषित तथा श्रु तकेवली श्रीगणधर भगवन्त गुंथित सम्पूर्ण द्वादशांगी श्रुतज्ञान का सर्वस्व है। उनके सामर्थ्य से वर्तमान में भी तीन लोक के भावों को हस्त में रहे हुए निर्मल जल की भांति स्पष्ट रूप में जान सकते हैं । ऐसा ही आत्मा विश्व में वन्दनीय, पूजनीय, माननीय एवं वर्णनीय होता है; वह भवसिन्धु से स्वयं तिरता है और दूसरे को भी पार उतारता है।
पाँच ज्ञानों में मतिज्ञान और श्रु तज्ञान, ये परोक्ष ज्ञान कहे जाते हैं। कारण यह है कि मति और श्रु त दोनों ज्ञान होने में इन्द्रियों की अपेक्षा रहती है तथा अवधि, मनःपर्यव और केवल इन तीनों ज्ञानों के होने में इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रहने से ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहे जाते हैं । श्रु तज्ञान का विरोधी श्रुतप्रज्ञान है । जो श्रुत
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१८१