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(१२) अगमिक त-भिन्न अक्षर के पाठ वाला श्रुत 'प्रगमिकश्रु त' कहा जाता है। (यह श्रु त प्रायः कालिकश्रुत में आता है)।
(१३) अंगप्रविष्टश्रु त-द्वादशांगी के प्राचारांग आदि बारह अंग का जो श्रु त है, वह 'अंगप्रविष्टश्रुत' कहा जाता है।
(१४) अनंगप्रविष्टश्र त-द्वादशांगी के अतिरिक्त आवश्यक आदि अंग बाह्य जो श्रुत, वह 'अनंगप्रविष्ट त' कहा गया है।
इस तरह श्रु तज्ञान के चौदह भेद हैं। शास्त्र में जैसे श्रुतज्ञान के उपर्युक्त चौदह भेद प्रतिपादित किये हैं, वैसे उनके बीस भेद भी कहे हैं; जो क्रमश: निम्नलिखित हैं
श्रुतज्ञान के बीस भेद (१) पर्यायश्रु त-ज्ञान का एक सूक्ष्म अंश । लब्धि अपर्याप्तासूक्ष्म निगोदिया जीव का जो सर्व से जघन्य श्रुत उससे, अन्य जीव में एक ज्ञान का अविभाग-पलिच्छेद-अंश बढ़े, वह 'पर्यायश्रुत' है ।
(२) पर्यायसमासश्रु त-दो, तीन आदि ज्ञान के अंश बढ़ें, अर्थात् जीव-आत्मा में अनेक पर्याय का ज्ञान, वह
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१७७