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(ग) लब्ध्यक्षर-प्रक्षर को उपलब्धि । अर्थात्--शब्दश्रवणादिक से होते हुए पदार्थ के बोध वाले अक्षर का ज्ञान ।
(२) अनक्षरश्रुत-खंखारने तथा सिरकम्पनादिक से मुझको बुलाता है या निषेध करता है इत्यादि अभिप्राय वाला जो जानना है, उसे 'अनक्षरश्रुत' कहा है।
(३) संज्ञिश्रुत-संज्ञिजीव का श्रुत, वहो 'संज्ञिश्रुत' कहलाता है। संज्ञा जिसको हो वही संज्ञी है। संज्ञा यानी सम्यग् प्रकारे जानना । उसके भी तीन भेद हैं--
(क) दीर्घकालिकी संज्ञा-'यह किस तरह करना ?' तथा 'यह कब होगा ?' इत्यादि भूत और भविष्यत्कालीन विचार शक्ति वाली जो सज्ञा, वह 'दीर्घकालिकी संज्ञा' है । इसका दूसरा नाम 'संप्रधारण सज्ञा' भी है। संज्ञी पचेन्द्रिय जीव को यह दीर्घकालिकी संज्ञा होती है ।
(ख) हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा-वर्तमान काल की ही विचारशक्ति वाली जो संज्ञा है, वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा' है । विकलेन्द्रिय और असंज्ञी जीवों को यह 'हेतुवा-: दोपदेशिकी संज्ञा' होती है।
(ग) दृष्टिवादोपदेशिको संज्ञा-विशिष्ट श्रुतज्ञान के क्षयोपशमवाले और हेयोपादेय की प्रवृत्ति वाले सम्यग्
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१७५