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________________ (१०) प्रसंदिग्धग्राही - कोई संशयरहित जाने, वह 'असंदिग्धग्राहो मतिज्ञान' कहलाता है । ( ११ ) ध्रुवग्राही - जो एक बार ग्रहण किया हो वह सर्वदा रहे, अर्थात् उसका विस्मरण न हो, वह 'ध्रुवग्राही मतिज्ञान' कहा जाता है । (१२) ध्र ुवग्राही - जो एक बार ग्रहण किया हो वह सर्वदा न रहे, उसे 'ध्र ुवग्राही मतिज्ञान' कहा है । मतिज्ञान के अट्ठाईस भेदों को उपर्युक्त बारह भेदों से गुणाकार करने पर तीन सौ छत्तीस (३३६) भेद होते हैं । उनमें श्रौत्पातिकी (अपनी मेले तत्काल उत्पन्न होने वाली) बुद्धि, वैनेयिकी (गुरु सेवा से उत्पन्न होने वाली ) बुद्धि, पारिणामिकी ( वय के परिपाक से उत्पन्न होने वाली) बुद्धि, और कार्मिकी - कर्मजा ( काम करते हुए उत्पन्न होने वाली ) बुद्धि, इन चारों बुद्धियों को मिलाने पर तीन सौ चालीस (३४०) भेद मतिज्ञान के होते हैं । द्रव्यसे - मतिज्ञानवाले सर्वद्रव्य जाणे, किन्तु देखे नहीं । क्षेत्र से - मतिज्ञानवाले सर्व क्षेत्र लोकालोक जाने, परन्तु देखे नहीं । काल से मतिज्ञानवाले सर्व काल जाने, किन्तु देखे नहीं । सि - १२ श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - १७३
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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