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'अर्थावग्रह' कहा जाता है । किसी ने मुझको बुलाया ऐसा ज्ञान, वही अर्थावग्रह है; जिसके छह भेद हैं ।
हुए दूर
( ३ ) ईहा - पाँच इन्द्रियों और मन के सहकार द्वारा अन्वयधर्म की घटना वाला तथा व्यतिरेकधर्म का निराकरण करने वाला जो ज्ञान होता है, वही 'ईहा' कहा जाता है । जैसे -- कोई व्यक्ति जंगल में जाते से वृक्ष के स्थाणु-ठूंठ को देखकर विचार करता है कि यह जंगल अरण्य है, सूर्यास्त हो गया है, मनुष्य का होना सम्भव नहीं है इसलिये 'अयं स्थाणुः' यह स्थाणु होना चाहिये ऐसा अन्वय और व्यतिरेक धर्म की घटना वाला तर्क ज्ञान ही 'हा' है । इसके छह भेद हैं ।
(४) अपाय- पाँच इन्द्रियों और मन के सहकार द्वारा 'अयं स्थाणुरेव' यह स्थाणु ही है, ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान ही 'पाय' कहा जाता है । इसके भी छह भेद हैं ।
(५) धारणा - अपाय से निर्णीत निश्चित किए हुए अर्थ को दीर्घकाल पर्यन्त जो धर रखना, वही 'धारणा' कहा जाता है । इस के तीन भेद हैं
(१) प्रविच्युति - उपयोग से च्युत न होना अर्थात् प्रवाहरूप से उपयोगरूप में वर्तना सो 'अविच्युति' है ।
( २ ) वासना - प्रविच्युति से प्रात्मा में पड़े हुए जो
श्रीसिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- १७०