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(१) स्पर्शेन्द्रिय का, (२) रसनेन्द्रिय का, (३) घ्राणेन्द्रिय का और (४) श्रोत्र न्द्रिय का ।
अर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा ये चारों भेद पाँचों इन्द्रियों तथा मन इस तरह छह-छह प्रकार से होते हुए कुल चौबीस होते हैं । उन में व्यंजनावग्रह के चार भेद मिलाने से अट्ठाईस भेद मतिज्ञान के हो जाते हैं । आगमग्रन्थ श्रीनंदी सूत्रादिक से मतिज्ञान के दो भेद, चार भेद, अठ्ठाईस भेद, बत्तीस भेद और उत्कृष्ट से तीन सौ चालीस (३४०) भेद भी जानने चाहिये ।
मतिज्ञान का वर्णन करते हुए उसके २८ भेद आदि के सम्बन्ध में संक्षेप में कहते हैं-
(१) व्यंजनावग्रह - इन्द्रिय और विषय के सम्बन्ध से होते हुए अव्यक्त ज्ञान के उत्तर काल में 'कुछ है' ऐसा जो अर्थावग्रह होता है, वही 'व्यंजनावग्रह' कहा जाता है । किसी ने अव्यक्त शब्द किया, वही व्यंजनावग्रह है । चक्षु और मन दोनों (पदार्थ से सम्बन्ध किये बिना का ज्ञान ) प्राप्यकारी होने से उनका व्यंजनावग्रह नहीं होता । इसलिये व्यंजनावग्रह के चार भेद रह जाते हैं ।
( २ ) अर्थावग्रह - पाँच इन्द्रियों और मन के सहकार द्वारा 'कुछ हैं' ऐसा जो सामान्य ज्ञान होता है, वही
श्री सिद्धचक्र - नव पदस्वरूपदर्शन- १६६