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[७] श्रीज्ञानपद ॐ नमो नाणस्स ) अन्नाणसंमोहतमोहरस्स ,
नमो नमो नारणदिवायरस्स । अज्ञान और मोह रूप अन्धकार को दूर करने वाले ज्ञान रूपी सूर्य को वारंवार नमस्कार हो ।
अष्टाविंशतिभेदाढ्या, मतिः पूर्वमितं श्रुतम् । षोढा चाप्यवधिद्वैधा मनःपर्यवमीरितम् ॥ १॥ एक केवलमाख्यात-मेकपञ्चाशदित्यमी । ज्ञानभेदा जिनरुक्ता, भव्याम्भोजविकासकाः ॥२॥
ज्ञान की व्युत्पत्ति
'ज्ञांश् अवबोधने' ज्ञा + भावे ल्युट, जानना । अथवा 'ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्'। जिसके द्वारा जान सके, वह ज्ञान कहा जाता है। अर्थात् विश्व के पदार्थों को समझाने की शक्ति जिसमें हो उसको ज्ञान कहते हैं । ज्ञान पदार्थबोधक है।
श्री सिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१६३