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जं सुद्धदेवगुरु, धम्मतत्तसंपति सद्दहरणत्वं । वन्निज्जइ सम्मत्तं तं सम्मं दंसरणं नमिमो ॥ ६६ ॥
शुद्धदेव, शुद्धगुरु और शुद्धधर्म रूप श्रद्धा रूप में जो सम्यक्त्व प्रशंसित है को हम भाव से नमस्कार कर रहे हैं ।।
तत्त्व सम्पत्ति की
उस सम्यग्दर्शन
६६ ।।
transोडा कोडिसागरसेसा न होइ कम्मठिइ ।
ताव न जं पाविजइ, तं सम्मं दंसरणं नमिमो ॥ ६७ ॥
जहां तक कर्म की स्थिति न्यून कर एक कोटाकोटि सागरोपम जितनी ही शेष रहे ऐसी स्थिति न हुई हो वहां तक, जिसकी प्राप्ति न हो सकती हो ऐसे सम्यग्दर्शन को हम भाव से नमस्कार कर रहे हैं ।। ६७ ।।
सव्वाणमद्धपुग्गल, परियट्टवसेसभवनिवासाणं । जं होइ गंठिभेए, तं सम्मं दंसरणं नमिमो ॥ ६८ ॥
अर्द्धपुद्गल परावर्तन से अधिक संसार की स्थिति जिनकी रही नहीं है ऐसे भव्य जीवों को राग-द्वेषमय ग्रन्थि का छेद होने पर ही जिसकी प्राप्ति होती है ऐसे सम्यग्दर्शन को हम नमन कर रहे हैं ।। ६८ ।।
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जं च तिहा उवसमिश्रं खउवसमिश्रं व खाइयं चेव । भरियं जिरिंगद समए, तं सम्मं दंसरणं नमिमो ॥ ६६ ॥
श्री सिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन- १५६