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सम्यक्त्व-समकितवंत जीव संसार में होते हुए भी उसकी भावना त्यागमार्ग की होती है। वह अपने कुटुम्ब परिवार का प्रतिपालन करते हुए भी आन्तरिक भावना से न्यारा रहता है, अर्थात् अपने कुटुम्ब में तन्मय होता नहीं है। जैसे धायमाता बालक को स्तनपानादि कराती है, लेकिन समझती है कि यह बच्चा-बालक मेरा नहीं है, वैसे ही सम्यक्त्ववंत जीव की विचारणा-भावना अपने कुटुम्ब-परिवार पर रहती है । समकितवंत व्यक्ति निर्दयपने पापकर्म नहीं करता। संयोगवशात् कदाचित् पराधीनतादिक से कुछ भी पापकर्म करना पड़े तो भी न छूटके ही करता है। श्रीसम्यग्दर्शन पद की आराधना का दृष्टांत
श्रीसम्यग्दर्शन पद की सम्यग् आराधना से श्रमण भगवान महावीर स्वामी परमात्मा की विद्यमानता में सद्धर्म की पूर्ण श्रद्धा और शुद्ध सम्यक्त्व की परीक्षा के बारे में अचल रही हुई महासती सुलसा श्राविका की आत्मा भविष्य में तीर्थंकर होगी। यही प्रभाव श्रीसम्यग्दर्शन पद का है। श्रीसम्यगदशन पद का नमस्कारात्मक वान
__'श्रीनवपद प्रकरण' ग्रन्थ में श्रीनवपद पैकी श्रीसम्यग्दर्शन पद को नमस्कार करते हुए वर्णन किया है कि -
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१५८