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अहर्निश शुद्ध रूप में अवश्य पालन करना चाहिये। इस तरह श्रीसम्यग्दर्शन पद का अाराधन कोई भी व्यक्ति कर सकता है।
श्रीसम्यगदर्शन पद के आराधक की भावना
श्रीसिद्धचक्र-नवपदजी के छठे पद में स्थित श्रीसम्यगदर्शन पद का आराधन करते हुए आराधक दृढ़पणे अपनी चित्तवृत्ति इस तरह स्थिर करे कि-'तमेव सच्चं निस्संक जंजिणेहिं पवेइयं' वही सत्य और निःशंक है जो कि जिनेश्वर-तीर्थंकर भगवन्तों ने कहा है। चाहे कितनी ही आपत्ति-विपत्ति या दुःख आदि क्यों न आ जाय, प्राणान्त कष्ट भी आ जाय तो भी धर्मश्रद्धा से चलित या भ्रष्ट न होकर, धर्मश्रद्धा में ही दृढ़-मजबूत रहे । देवता भी उसको धर्मश्रद्धा से चलित करने के लिये अनुकूल या प्रतिकूल अनेक उपसर्ग-उपद्रव करे तो भी चलित न होकर अचल रहे । इससे इन्द्रमहाराजादि भी उसकी भूरि प्रशंसाअनुमोदना करते हैं।
श्रीसम्यग्दर्शन पद-भावना हे सम्यग्दर्शन पद ! आप ही मोक्षमार्ग के सुदृढ़ मूल हो । भव्यजीवों की भवमर्यादा निश्चित करने वाले प्राप ही हो। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का संगम-सम्बन्ध
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१५६