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________________ (२) शुद्धदेव, शुद्धगुरु और शुद्धधर्म के प्रति प्रात्मा में अचल श्रद्धा होती है तथा आदर और बहुमान भी प्रगट होता है। (३) कुदेव, कुगुरु और कुधर्म प्रति का प्रतिबन्ध सर्वथा विनष्ट हो जाता है। (४) अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ चले - जाते हैं। (५) आत्मा को क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होने से सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय भी विनष्ट हो जाते हैं। (६) राग और द्वोष की ग्रन्थि भेदी जाती है । (७) अनादि काल के असद्ग्रह निर्मूल हो जाते हैं । (८) विशुद्ध तत्त्वों की गवेषणा उत्पन्न होती है । (९) श्रुतज्ञान में तीव्र पिपासा जागृत होती है । (१०) सुदेव, सुगुरु और सुधर्म ही आत्मा का सर्वस्व समझा जाता है, इतना ही नहीं, किन्तु उनकी उपासना में तन्मयता प्रगट हो जाती है। (११) गुण और गुणी के प्रति का उपेक्षा भाव अदृश्य हो जाता है। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१५४
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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