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________________ * (१) 'औपशमिक सम्यक्त्व' दर्शन सप्तक के उपशम से प्राप्त होता है। ___ * (२) 'क्षायोपशमिक सम्यकत्व' दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से प्राप्त होता है। ___ * (३) 'क्षायिक सम्यक्त्व' दर्शनसप्तक के क्षय से प्राप्त होता है। * (१) प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन में अनन्तानुबन्धी कषाय का विपाकोदय स्थगित होने के साथ मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की प्रकृति का विपाकोदय या प्रदेशोदय एक अतर्मुहूर्त काल के लिए स्थगित हुआ हो, तब मौपशामिक सम्यक्त्व कहा जाता है। वह एक अंतर्मुहूर्त पर्यन्त तक रहता है। ___* (२) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन में सातों कर्मों की प्रकृतियों का उदय में आने के बाद विनाश करते हैं। ये सातों प्रकृतियाँ उदय में न प्रा किन्तु अपनी सत्ता में रही हुई प्रकृतियों के विपाकोदय को रोके, अर्थात् मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का शोधन कर अशुद्ध-अर्धशुद्ध को दबाकर सम्यक्त्व मोहनीय कर्म के उदय को भोगवता है वह क्षायोपशमिक सम्यकत्व कहा जाता है। वह विशेष में विशेष ६६ सागरोपम तक रहता है। ___ * (३) क्षायिक सम्यगदर्शन में इन सातों प्रकृतियों का समूल विनाश हो जाने से उसको क्षायिकसम्यग्दर्शन कहते हैं। वह सर्वदा कायम रहता है। मोक्ष में भी वह क्षायिकसम्यग्दर्शन प्रात्मा के साथ में सर्वदा ही रहता है। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१४४
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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