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________________ मोहनीय कर्म का अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा सम्यकत्व मोहनीय, मिश्र मोहनोय एवं मिथ्यात्व मोहनीय इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय होता है तब सम्यकत्व मिलता है। उससे आत्मा अपने को प्रात्मसाक्षात्कार से देख सकता है। प्रात्मा का भवभ्रमण भी मर्यादित हो जाता है। उसको अर्ध पुद्गल परावर्त से अधिक संसार में नहीं रहना पड़ता। जिनका अर्ध पुद्गल परावर्त से कम भी संसार हो उनको भी राग-द्वेष रूप ग्रन्थि का छेदन किये बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती है। राग-द्वेष के गाढ़ परिणाम जहां तक प्रात्मा में रहे हुए हैं वहां तक प्रात्मा सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की योग्यता भी नहीं पा सकता क्योंकि सम्यग्दर्शन गुण की घातक-विनाशक राग-द्वेष की तीव्रता है। राग-द्वेष की मंदता को धरने वाला प्रात्मा सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की समस्त सामग्री सहजता से प्राप्त कर सकता है और उस सामग्री द्वारा अति सुन्दर आराधना कर सम्यग्दर्शन गुण को अवश्य प्राप्त कर सकता है। ___ श्रीजिनेन्द्रविभु तीर्थंकरदेवों के शासन में प्रौपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व इस तरह सम्यग्दर्शन का तीन प्रकार-भेद से वर्णन किया है। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१४३
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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