________________
गुरु स्थापन करना और दुर्गति में पड़े हुए जीवों को उबारने वाले ऐसे जिनेश्वर भाषित धर्म में ही धर्मपन की श्रद्धा रखना, वह 'सम्यग्दर्शन' कहलाता है ।
जैनदर्शन में शुद्धदेव (सत्यदेव), शुद्धगुरु (सत्यगुरु) और शुद्धधर्म (सत्यधर्म) के तत्त्व का जो संशयादिक रहित सम्यग्ज्ञान होता है, उसे ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। वह ज्ञान और दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से प्राप्त होता है। अर्थात् विपर्यास और कदाग्रह की वासना रूप अनादिकालीन मिथ्यात्व जिससे दूर होता है तथा जिनेश्वरकथित जीवाऽजीवादि तत्त्वों पर सहज भाव से श्रद्धा होती है, वह उत्कृष्ट निधानरूप सम्यग्दर्शन कहा जाता है। जब आत्मा के साथ अनादिकाल से लगे हुए कर्म की स्थिति अन्तः कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण होती है, तब ही सम्यक्त्व प्राप्त होता है । अर्थात् मिथ्यात्व
# प्रात्मा को अपने कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को तोड़ने के लिए जोरदार पुरुषार्थ करना पड़ता है। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटाकोटि सागरोपम ज्ञानावरणीयकर्म-दर्शनावरणीयकर्म-वेदनीयकर्म तथा अंतरायकर्म की ३० कोटाकोटि सागरोपम एवं नाम कर्म और गोत्र कर्म की २० कोटाकोटि सागरोपम की होती है। इन सभी उत्कृष्ट स्थितियों का ह्रास-विनाश करके जब प्रात्मा ज्ञानावरणीयादि इन सातों कर्मों की स्थिति को एक अन्तः कोटाकोटि सागरोपम की कर दे तब आत्मा यथाप्रवृत्तिकरणअपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करके निर्मल श्रीसम्यग्दर्शन गुण प्राप्त करता है।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१४२