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पंचिदियदमरणपरा, निज्जिप्रकंदप्पदप्पपसरा । धारंति बंभचेरं, ते मुरिणरणो हुतु मे सरणं ॥२॥
पंच इन्द्रियों के दमन में तत्पर, कन्दर्प के दर्प को जीतने वाले तथा निर्मल ब्रह्मचर्य को धारण करने वाले मुनियों का शरण मुझे प्राप्त हो ।। २ ।।
जे पंचममिइसमिया, पंचमहव्वयभरुव्वहरणवसहा । पंचमगइअणुरत्ता, ते मुरिगरगो हुंतु मे सरणं ।। ३ ॥
जो पंच समितियों से युक्त हैं, पंच महाव्रतों के भार को वहन करने में वृषभ के समान हैं तथा पंचम गति (मोक्ष) के प्रति अनुराग वाले हैं, ऐसे मुनियों का शरण 'मुझे प्राप्त हो ।। ३ ।।
जे चत्तसयलसंगा, सममरिणतणमित्तसत्तुरणो धीरा । साहंति मुक्खमग्गं, ते मुरिणरणो हुतु मे सरणं ।। ४ ॥
जिन्होंने सब संग को छोड़ दिया है, जो मरिण और तृण तथा मित्र और शत्रु के प्रति समदृष्टिवाले हैं तथा जो धीरता से मोक्षमार्ग को साधते हैं, ऐसे मुनियों का शरण मुझे प्राप्त हो ।। ४ ।। साधु भगवन्त का स्वरूप और स्थान हे साधु भगवन्त ! जैनदर्शन के श्रीनमस्कार महामन्त्र
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१३६