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________________ "चत्तारि सरणं पवज्जामि-अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सररणं पवज्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि ।" चार पदार्थों का शरण मैं ग्रहण करता हूं। (१) अर्हन्त-अरिहन्त भगवन्तों का शरण मैं अंगीकार करता हूं, (२) सिद्ध भगवन्तों का शरण मैं स्वीकार करता हूं, (३) सुसाधुओं का शरण मैं ग्रहण करता हूं तथा (४) केवलिभगवन्त द्वारा प्ररूपित धर्म का भी शरण मैं स्वीकारता हूँ। अर्थात्-जगत् में अरिहन्त भगवन्तों का, सिद्धभगवन्तों का, साधुमहाराजाओं का, और सर्वज्ञ-केवलि-भाषित धर्म का मैं शरण स्वीकारता हूँ। सारांश--संसार में अरिहंत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञकेवलि भाषित धर्म महामंगलकारी, लोकोत्तम और शरण लेने योग्य हैं । इसलिये इन चारों बातों को मैं अपने हृदय में धारण करता हूँ। साधु-शरण के बारे में और भी कहा है कि-- महुअरवित्ति जे, बायालीसदोसपरिसुद्धं । भुंजंति भत्तापरणं, ते मुरिणगो हुंतु मे सरणं ॥ १ ॥ मधुकरवृत्ति से बयालीस दोषों से रहित परिशुद्ध भोजन तथा जल-पानी को जो मुनि वापरते हैं उन मुनियों का शरण मुझे प्राप्त हो ।। १ ।। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१३५
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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