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चउविहविगहविरत्ता, जे चउविहचउकसायपरिचत्ता । चउहा दिसंति धम्म, ते सव्वे साहुणो वंदे ।। ६० ॥
चार प्रकार की विकथा से विरक्त तथा सर्व प्रकार के कषायों के त्यागी होते हुए जो दानादिक चार प्रकार के धर्म की देशना देते है उन सर्व साधुओं को मैं वन्दन करता हूँ ॥ ६० ।।
उज्झियपंचपमाया, निज्जियपंचिदियाय पालंति । पंचेवय समिइयो, ते सत्वे साहुणो वंदे ॥ ६१ ॥
पांच प्रकार के प्रमाद के परिहारी होकर पांच इन्द्रियों का दमन करते हुए जो पांच समितियों का पालन करते हैं उन सर्व साधुओं को मैं वन्दन करता हूँ ।। ६१ ।।
छज्जीवनिकायरख्खरण,-निउरणा हासाइछक्कमुक्का जे । धारंति य वयछक्कं, ते सव्वे साहुणो वदे ।। ६२ ॥
छह जीवनिकायों के रक्षण करने में निपुण और हास्यादिक षट्क से मुक्त होते हुए जो छह व्रतों को प्राण की तरह धारण करते हैं ऐसे उन सर्व साधुओं को मैं वन्दन करता हूँ ।। ६२ ।।
जे जियसतभया मय,-अट्ठमया नववि बंभगुत्तियो । पालंति अप्पमत्ता, ते सव्वे साहुगो वंदे ॥ ६३ ॥
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१३२