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ग्रंथकार महर्षि विद्वान् प्राचार्यश्री रत्नशेखरसूरीश्वर जी महाराजश्री ने श्रीनवपद का वन्दनापूर्वक अति सुन्दर संक्षिप्त वर्णन किया है। उसमें पचम श्रीसाधुपद का वर्णन करते हुए कहा है कि
जे दंसरगनारणचरित्त,-रूवं रयरणत्तएण इक्केरण । साहंति मुख्खमग्गं, ते सव्वे साहुरगो वन्दे ॥ ५७ ॥
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप अनुपम रत्नत्रयी द्वारा जो मुक्तिमार्ग का साधन करते हैं ऐसे सर्व साधुओं को मैं वन्दन करता हूँ ।। ५७ ।।
गयदुविहदुठ्ठभागा, जे झाइन धम्मसुक्कझारणाय । सिखंति दुविह सिख्खं, ते सव्वे साहुणो वंदे ॥ ५८ ।। - जो आर्त और रौद्र दोनों प्रकार के दुष्टध्यान छोड़ कर, धर्म और शुक्ल दोनों प्रशस्त ध्यान ही ध्याते हैं तथा ग्रहणशिक्षा व प्रासेवनशिक्षा का अभ्यास करते हैं, उन सर्व साधुओं को मैं वन्दन करता हूँ ।। ५८ ।। गुत्तित्तएण गुत्ता, तिसल्लरहिया तिगारवविमुक्का । जे पालयंति तिपईं, ते सव्वे साहूणो वंदे ॥ ५६ ॥
तीन गुप्ति से गुप्त, तीन शल्य से रहित और तीन गारव से विमुक्त होते हुए जो जिनाज्ञा का पालन करते हैं, उन सर्व साधुओं को मैं वन्दन करता हूँ ॥ ५६ ।।
श्री सिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१३१