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जैनधर्म-जैनशासन के मुनि आदि नाम से समलंकृत ऐसे साधु महाराज समस्त विश्व के साधुओं में सर्वोत्कृष्ट सर्वोत्तम, सर्वोच्च कोटि के माने गये हैं।
साधु के अनेक भेद जैनधर्म--जैन शासन में गुणधारक साधु-मुनिराज उपाधिभेद से भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रतिपादित किये गये हैं। जैसे-ज्ञानगुण से वे मति-श्रुतज्ञानी हैं, एक-दो-तीनचार-पांच-छह-सात-आठ-नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरहचौदह पूर्व के ज्ञानी हैं; सूत्र, अर्थ और तदुभय के ज्ञान वाले हैं, अवधिज्ञानी हैं, मनःपर्यवज्ञानी हैं तथा केवलज्ञानी हैं । संयम-चारित्र गुण से सामायिक चारित्रवन्त हैं, छेदोपस्थापनीय चारित्रवन्त हैं, परिहारविशुद्धि चारित्रवन्त हैं, सूक्ष्मसांपराय चारित्रवन्त हैं और यथाख्यात चारित्रवन्त हैं । अर्थात् इन पांचों चारित्रों में से कोई भी चारित्रवन्त हैं । बकुश, कुशील, पुलाक, निर्ग्रन्थ और स्नातक इन पांचों में से किसी भी चारित्र की आराधना करने वाले हैं। ऐसे साधु-महाराजों में से भी कोई उपशम श्रेणी आरूढ़ हो, कोई क्षपकश्रेणी आरूढ़ हो, कोई जंघाचारण हो, कोई विद्याचारण हो, कोई स्वयंबुद्ध हो, कोई प्रत्येकबुद्ध हो, कोई बुद्धबोधित हो, कोई सर्वज्ञ वीतराग श्रीतीर्थंकर परमात्मा हो, श्रुतकेवली गुणवन्त श्री गणधर भगवन्त हो, जिन
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१२६