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स्वादिम इन चार प्रकार के प्राहारों का संग्रह नहीं रखते हैं । इसलिये वे कुक्षिसंबल कहे जाते हैं। .
(६) सच्चे साधु-श्रमण 'अगंधन कुल के सर्प' समान हैं। [जैसे अगंधनकुल का सर्प वमन किए हुए (अर्थात् उलटी किये हुए) विष को कभी नहीं चूसता है, वैसे ही मुनि-श्रमण भी वमे हुए भोगों को कभी नहीं इच्छते ।]
(७) सच्चे साधु-श्रमरण 'मेरुपर्वत' के समान हैं। [जैसे मेरु पर्वत स्थिर और निष्कम्प है, वैसे मुनि-श्रमण भी स्वयं पर आने वाले परीषहों तथा उपसर्गों के बीच भो मेरु पर्वत के सदृश स्थिर और निष्कम्प रहते हैं ।] .
(८) जैनशासन में साधु-श्रमण महान् शूरवीर, वफादार सैनिक-सुभट के समान हैं। [जैनशासनरूपी महान् साम्राज्य, प्राचार्यरूपी महाराजा, उपाध्यायरूपी मन्त्रीश्वर होने पर भी चतुर्विधसंघरूपी प्रजा का संरक्षण करने वाले महान् शूरवीर वफादार सैनिक-सुभट की तरह साधु-श्रमण हैं।]
() सच्चे साधु-श्रमण प्राधि, व्याधि, उपाधिरूप संसार के त्रिविध तापों से संतप्त प्राणियों के लिये (विसामा के घटादार) 'विशाल वट वृक्ष' के समान हैं । (१०) सच्चे साधु-श्रमण संसारवर्ती प्राणियों को
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१२६